एक ख्वाब
अफशनों सा, अनदेखा सा, बिखरा सा
फिर भी अपना सा.
एक चाहत अधूरी सी
उसे मुक्कमल करने की,
एक कमजोरी
मेरी चाहत, मेरा दिल
और इसकी ये बेचैनी.
बेवजह, बेरोक, बेटोंके
मचल उठता है ये न जाने क्यों...??
कुछ तो है
अलग सा, अज़ीब सा
जीने के नज़रिये को तार-तार करता हुआ
सोच को बार-बार सोचकर बेकार करता हुआ
यूँ ही बावला नही हु मैं.
बेशाबाब, बेझिझक मचल पड़ता है ये
क्या इसे इन सर्द रातों की तेज सर्द हवाओं से मद्धम-मद्धम हिलते हुए पत्तों का ये शोर रास नही आता??
जो इसके अंदर स्वयं ही एक तूफ़ान सा उमड़ता रहता है
कुछ पल के लिए खामोश,
कुछ पल के लिए बेचैन,
कुछ पल के लिए अनजान,
अनदेखा सा, अनसुना सा.
न जाने क्या कहता है ये??
उसपर ये तुम्हारी ख़ामोशी
सुई की नोक सी बाहरी चमड़ी को भेदती हुई दिल के अंदर तक चुभती है
तुम्हे कुछ नहीं पता
तुम शायद अनजान हो इन सब से ओ-बावरी
मैं ही जनता हु
कैसे इससे रोज निपटता हु
न जाने कैसे से पता हु इसे मैं
कैसे खुद को रोक पाता हु.
जी करता है इस तूफ़ान का रुख मोड़ दू
समेट लूँ खुद को मैं...हमेशा के लिए
तोड़ दू सारे सन्नाटे को
चीख लूँ एक आखिरी बार
बस इसी धोखे में
की काश
यूँ ही इन ख़्वाबों से हौले-हौले गुजरते हुए
धूमिल पड़े इन इरादों को तुम भी कभी सांस दोगी
मेरे इस अज़ीब से लम्हे में तुम भी कभी मेरा साथ दोगी
कुछ पल के लिए ही सही, इसे महसूस करोगी.
पर सच कह
तुम जब भी कभी इन रास्तों से गुजरोगी
मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगा
थाम लूंगा तुम्हारे इन कोमल हाथों को
और तुम्हारी आवाज़ बनूँगा.
फिर अगले ही पल ये ख्याल आता है
वही ख्वाब...वही चाहत...वही कमजोरी
और इन सब में बस तुम......सिर्फ तुम!
काश इस ख़ामोशी का मतलब जान पाता
क्या है उधर कुछ पहचान पाता
कसम खुद की
इस दुनिया से परे
कुछ अलग, कुछ बेहतर लिख पाता...!!!